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आधी दुनिया – विमर्श से दूर पहाड़ की महिलाएं !

उत्तराखंड राज्य के निर्माण में आधी आबादी का सबसे बड़ा योगदान - दिनेश शास्त्री।

विमर्श से दूर पहाड़ की महिलाएं !
उत्तराखंड राज्य के निर्माण में आधी आबादी का सबसे बड़ा योगदान – दिनेश शास्त्री।

आंदोलन की कोख से उपजे उत्तराखंड राज्य के निर्माण में आधी आबादी का सबसे बड़ा योगदान है। इस तथ्य से मुंह चुराना सत्य से मुख मोड़ने जैसा है। फिर ऐसा क्या हुआ कि पृथक राज्य स्थापना के बाद महिलाएं विमर्श के केंद्र में नहीं रही। दो दशक बाद आज यह बात शिद्दत से महसूस की जा रही है कि आधी दुनिया को उसका न सिर्फ हक मिले बल्कि उसकी यथोचित भागीदारी भी सुनिश्चित हो।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की बात करें तो स्वभाव से यहां के निवासी कठोर परिश्रमी हैं, क्योंकि इन्हें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विपरीत परिस्थितियों में रह कर भी प्रकृति के साथ निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। यहाँ पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में परिश्रम एवं संघर्ष करने की शक्ति अधिक है। युवा पुरुषों का अधिकांश भाग मैदानी क्षेत्रों में पलायन के लिए विवश है। नतीजतन पहाड़ की संपूर्ण अर्थव्यवस्था महिलाओं पर केंद्रित है। उत्तराखंड के मैदानी भागों की तुलना में पर्वतीय क्षेत्रों की महिलाओं का स्तर भिन्न है। उसका मुख्य कारण यहाँ की सामाजिक परम्परायें, आर्थिक पिछड़ापन, शिक्षा का अभाव तथा स्त्रियों के शोषण की एक लंबी ऐतिहासिक प्रवृत्ति है। वह भोजन बनाती है, घास काटती है, ईंधन इकट्ठा करती है, पेयजल लाती है तथा खेतों में हल चलाने के अलावा समस्त कार्य करती है।

डा. राजेंद्र प्रसाद बलोदी के अनुसार सदियों की परम्परा ने पर्वतीय नारी को अत्यधिक आत्म-त्यागी, नि:स्वार्थ सेविका एवं कर्त्तव्यपरायण बना दिया। वह कष्ट सहन करने में ही गर्व एवं सुख का अनुभव करती रही। उसका जीवन इतना कठिन व करुण रहा है कि उसकी व्यथा का अनुमान लगाना ही कठिन है। कुछ ही दशक पूर्व तक नारी स्वयं बाल विवाह और बेमेल विवाह के लिए पिता को तथा बहु-विवाह एवं विवाह-विच्छेद के लिए पति को मौन स्वीकृति देती रही. किंतु अपनी नैतिक दृढ़ता, संस्कारगत रूढ़िवादिता, विवाह-सूत्र की अखंड मर्यादा और सामाजिक तिरस्कार के भय से बाल विधवायें तक अपने संपूर्ण जीवन के सौख्य को अपने स्वर्गीय पति के नाम पर बलिदान करती रही हैं।

दूसरी बात यह कि पर्वतीय क्षेत्रों में अधिकांश युवा पुरुषों के पलायन से यहाँ की सारी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। परिणामस्वरूप महिलाओं का कार्यभार बढ़ गया है और वह इस क्षेत्र की एक सशक्त आर्थिक धुरी बन गई हैं। कार्य की दृष्टि से पर्वतीय तथा मैदानी क्षेत्रों की महिलाओं में पर्याप्त अन्तर है। मैदानी महिलाओं की अपेक्षा पर्वतीय महिलाओं में कार्यभार अधिक है। यहाँ की अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से कृषि और पशुपालन पर निर्भर है। यहाँ की महिलायें सुबह से शाम तक खेतों में ढेले तोड़ना, गोबर डालना, फसलों की कटाई-मॅडाई, घास, लकड़ी की व्यवस्था करना, झरने अथवा नदी से पेयजल भरकर लाना, अनाज को कूटना-पीसना, दूध दुहना, बच्चों की देखभाल करना तथा संपूर्ण परिवार के लिए भोजन तैयार करना आदि कार्य करती हैं। पुरुष जब खेतों में हल चलाने का कार्य करते हैं तो उनके लिए खेत में भोजन पहुँचान का कार्य भी महिलायें ही करती हैं।

अब सवाल यह है कि जब सब कुछ महिलाओं पर ही निर्भर है तो उसे उसका वाजिब हक कब मिलेगा? मिलेगा भी या नहीं? इस पर उत्तराखंड के नियंताओं, समाज सुधारकों, विचारकों और आखिरकार समाज को सोचना ही होगा कि क्या वह आधी दुनिया कहे जाने वाली महिलाओं के साथ न्याय कर रहा है? और नहीं कर रहा है तो कब करेगा। आधी अधूरी योजनाओं से तो महिलाओं का भला होने से रहा।
— दिनेश शास्त्री, देहरादून।

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