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उत्तराखंड ग्राम्य जीवन : मोबाइल को हराती संगूड़ की संस्कृति, परम्परा और परिवेश !

रोजगार के नाम पर बहुसंख्यक फौज में, गिने चुने सरकारी नौकरी में लेकिन आन -बान कायम ।

उत्तराखंड ग्राम्य जीवन : मोबाइल को हराती संगूड़ की संस्कृति, परम्परा, परिवेश !
रोजगार के नाम पर बहुसंख्यक फौज में, गिने चुने सरकारी नौकरी में लेकिन आन -बान कायम ।

चमोली जनपद के मुख्यालय गोपेश्वर से संगूड़ गांव लगभग तीस किमी दूर है। निंगोल नदी के करीब बसा गांव संगूड़ और गंजेड़ के मूल निवासी महर नेगी जाति के हैं। निंगोल नदी तुंगनाथ से निकलकर लंगासू के पास अलकनंदा से मिलती है।

निकट का मुख्य बाजार पोखरी सेठ और राजनेताओं के लिए मशहूर है। यह क्षेत्र मोटर मार्ग द्वारा गोपेश्वर, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग और रूद्रप्रयाग से जुड़ा है सो विचार में आधुनिक विकास की छवि दिखती है।

पुराने लोग गोपेश्वर – त्रिशूला – पोखरी मार्ग को हाफला घाटी मार्ग या नागपुर परगना के नाम से अधिक जानते हैं।

सेना के रिटायर बुजुर्ग कहते हैं – नैल गांव का राजू भंडारी कह रहा था, चाचा गांव तक रोड़ ले आता हूं। मैंने सुना दिया – बेटा, मेरी तो कट गई अब जिन के खेत जाने हैं, उन से पूछ लो। वैसे भी गांव के ऊपर सड़क है तो दरवाजे पर लाने की क्या जरूरत है !

पीएनबी त्रिशूला शाखा ने सेनिक की दस साल बकाया पैंशन का भुगतान किया लेकिन बीस हजार टीडीएस काट लिया। अब टैक्स का हिसाब किस से पूछे और यह आईटीआर क्या है ? कौन भरेगा ?

गांव में 1990 में बिजली आई और पिछले माह सुबेदार की पैंशन लेकर आए दरबान सिंह नेगी याद करते हैं – कैसे गांव के दोनों छोर पर बंदर की तरह चढ़कर खम्बों पर तार बांधे हैं।

प्रसव के लिए गोपेश्वर जाना है। इंटर तक की शिक्षा आसपास है लेकिन लड़कियों के लिए कालेज दूर है।  गांव में मोबाईल और इंटरनेट भी मौजूद है सो दूसरे प्रांतों और सेना में काम कर रहे अपनों से वीडियो कालिंग हो जाती है।

स्कूली बच्चे वीडियो गेम में और बड़े यू टयूब और सोशल मीडिया की खबरों में उलझ जाते हैं।

संगूड़ के सामाजिक कामकाज में सामूहिकता और समरसता बनी हुई है। दु:ख – सुख में भोजन बनना है या गांव में मकान निर्माण सब लोग अपनी उपस्थिति और सहयोग में सक्रिय रहते हैं।

रिटायर होकर संगूड़ गांव लौट रहे सेनिक का गाजे – बाजे के साथ अगवानी की जाती है। सेनिक की कुशलता के लिए सत्यनारायण कथा की परंपरा जारी है।

सामूहिक जलपान या भोजन का आयोजन होता है। होली खेलने के बाद निंगोल नदी के किनारे भोज की परंपरा महर नेगी निभाते आ रहे हैं।

गांव में चार रिटायर सुबेदार, दर्जन से अधिक सेनिक और बुजुर्ग महिलायें छोटे बच्चों और नौजवानों को अपने स्नेह की छाया में रखते हैं।
अपने हाथों से खाना बनाना और मिल – बैठकर खाने से प्यार – महोब्बत बढ़ती है। कारीगर के हाथों का खाना खिलाना पैसेवालों की शोसेबाजी है।

संगूड़ से मेरा नाता ननिहाल का है मगर स्वर्गवासी मां की स्मृति में यहां आने में मुझे छह दशक लग गए। गांव की हरियाली, कर्मठता और बसावट देखकर मां की निर्भिक व परिश्रमी छवि तरोताज़ा हो गई।
— भूपत सिंह बिष्ट

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