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डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी काव्य और पत्रकारिता में दून घाटी के अनमोल रत्न !

प्रोफेसर त्रिवेदी संस्कृत शोध के गाइड, प्रखर पत्रकार , गहरे कवि और मंच संचालन में हमेशा अद्वितीय रहे

 

डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी काव्य और पत्रकारिता में दून घाटी के अनमोल रत्न !

प्रोफेसर त्रिवेदी संस्कृत शोध के गाइड, प्रखर पत्रकार , गहरे कवि और मंच संचालन में हमेशा अद्वितीय रहे।

 

उत्तराखंड के सबसे बड़े डी ए वी डिग्री कॉलेज , देहरादून में

संस्कृत विभाग के प्रोफेसर डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी शिक्षा , साहित्य और पत्रकारिता में

सब के लिए  गुरु जी की भूमिका में रहे हैं। 

राष्ट्र कवि दिनकर के साथ प्रोफेसर गिरिजा शंकर त्रिवेदी

 

11 मई 1939 को कानपुर उत्तरप्रदेश में जन्मे डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी की कर्म भूमि दून घाटी रही है। 

जब आज के प्रयागराज में साहित्य की सरस्वती धारा पूरे वेग से प्रवाहित रही तब गुरु जी दून घाटी में  भी 

काव्य की नवोदित धारा को संजोने का भगीरथ प्रयास कर  रहे थे। 

70 और 80 के दशक में देहरादून ने राष्ट्रीय कवि सम्मेलन  जलवा देखे  – ये सब हिंदी साहित्य के

पुरोधा डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी के  अथक परिश्रम और परिमार्जित सोच से फलीभूत हो सके। 

फिर ये दौर कोई और नहीं संजो सका – दिनकर से लेकर नीरज , काका हाथरसी , भवानी प्रसाद मिश्र ,

कुंवर बेचैन , शिव मंगल सुमन आदि मूर्धंन्य कवियों को दून के फलक में उतारने का श्रेय गुरु जी को रहा है। 

इन कवियों का यथोचित परिचय और रचना संसार परोसने का सानी डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी के

करीब नहीं पहुँच पाये। 

देहरादून ही नहीं उत्तर भारत में डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी सफल कवि और संचालक के

रूप में यादों में बसे हैं। 

डॉ त्रिवेदी जी का आशीर्वाद नवोदित कवियों के साथ !

देहरादून के नवोदित प्रतिभाओं को भी गुरु जी ने हमेशा अपना स्नेह पूर्ण प्रोत्साहन दिया है। 

डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी प्रखर पत्रकार के रूप में दैनिक हिंदुस्तान और नव भारत टाइम्स

जैसे पत्र -पत्रिकाओं को समृद्ध करते रहे हैं। 

डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी की ये रचना उनकी गहन अनुभूति का परिचय है –

निराला तुम जीते हो !

जब-जब घिरता है चतुर्दिक घनान्धकार
‘धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध’
कह, मन का राघव
कर उठता चीत्कार
‘मैं रण में गया हार’
फिर सहसा मौन बोल उठता यूँ-
‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’
‘योग्य-जन जीता है,
पश्चिम की उक्ति नहीं,
गीता है गीता है
स्मरण करो बार-बार
जागो फिर एक बार’
तब मुझे लगता है
निराला तुम जीते हो !

सचमुच तुम जीते हो
बिखरे हुए जीते हैं धरती पर तुम्हारे बिंब,
जीती ही नहीं,
लाखों को जिलाती है,
तुम्हारी उत्प्रेक्षाएँ,उपमाएँ, उक्तियाँ
कालजयी काव्यकार !
बुझती नहीं है प्रतिभा की चिनगी भी
जिसके तुम ‘कान्त रवि’
महाकवि
कृतिकार अपनी कृतियों में रहता है
‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत’ कहती श्रुति
मृत्युन्जय कलाकार !
कभी तुम चूके नहीं,
कभी नहीं रीते हो
अब भी युग-दाह-दग्ध हालाहल पीते हो
जीते हो, जीते हो
निराला तुम जीते हो !

(रचनातिथि- १०-१२-६८, ‘ज्योति रथ’ संग्रह से)

  • प्रस्तुति – भूपत सिंह बिष्ट

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