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गर्त में उतरने को बेताब नेता आखिर  कुछ तो दाल में काला है !

लोकसभा चुनाव के दौरान 400 पार का नारा और दलबदलू नेताओं की पार्टी में आमद ।

गर्त में उतरने को बेताब नेता आखिर  कुछ तो दाल में काला है !
लोकसभा चुनाव के दौरान 400 पार का नारा और दलबदलू नेताओं की पार्टी में जरूरत।

 

श्रीमद्भगवद् गीता का एक श्लोक है –

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

यानी जैसे मनुष्य जगत में पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को

ग्रहण करते हैं, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नवीन शरीरों को प्राप्त करती है।

उत्तराखंड में बच्चों का वसंतोत्सव फुलदेई अभी हाल में संपन्न हुआ है।

वन प्रांतर में भी पेड़ पौधों ने वसंत ऋतु में नई कोपलें अपना ली हैं, नए फूल खिल उठे हैं।

देहरी देहरी फूलों से सजी हैं, लेकिन उसी वसंत की आस में कुछ विरोधाभास भी

उपज रहे हैं। ऐसे मौसम में कहीं वसंत की महक और कहीं बेनूर पतझड़

कुछ तो गड़बड़ है।

मौसम ने थोड़ी चुनावी गर्मी क्या पाई कि पुराने वस्त्र त्याग कर नए वस्त्र पहनने की

प्रतिस्पर्धा सी शुरू हो गई है।

शायद राजनीति के चतुर सुजान गीता का सूत्र वाक्य बखूबी समझते हैं।

नतीजा यह है कि एक कुनबे में पतझड़ सा सन्नाटा पसरा है।

उस कल्प वन के वृक्ष एक- एक कर पुराने पल्लवों को त्याग रहे हैं।

वस्त्र बदलने का यह क्रम राजनीति के जंगल में कुछ ज्यादा गतिमान है।

उत्तराखंड में भी देश के अन्य भागों की तरह कुछ इसी तरह पुराने वस्त्र त्याग कर

नए वस्त्र पहनने का मौसम राजनीति के चरम पर है और मौसम विज्ञानियों की मानें तो

ये लोकसभा चुनाव में सातवें चरण के नामांकन तक जारी रहेगा।

 

राजनीतिक दलों के लिए कहीं लू के थपेड़े तो किसी के लिए शीतल मन्द पवन के

झोंके इस मौसम में मिल रहे हैं।

गीता के उपदेशों पर शब्दश: अमल करने वाले मानो इसी कुंभ पर्व का

इंतजार कर रहे थे। अब सारे पाप दलबदल के गंगा स्नान में धुल जाएंगे और

निर्मल मन, पावन तन के साथ वे भगवद भजन कर नई पार्टी में

नव देव से पुण्य लाभ अर्जित करेंगे।

राजधानी देहरादून में हाल में वस्त्र बदलने की यह रस्म बेहद दिलचस्प

दिखी। गंगा स्नान के लिए घाट पर आए “निरीह प्राणी” ने पूरी शिद्दत से नए वस्त्र

धारण किए लेकिन चेहरे पर भाव भंगिमा में वो जोश नहीं दिखा।

शायद निपट बुढ़ापे में पुराने कुनबे से बिछुड़ने का दुख रहा हो या नया गोत्र

अपनाने की तनिक हिचक। आखिर पूरी ज़िंदगी उन्हें गरियाने और लाँछन

लगाने में जो बीतायी है।
कहीं से भी बॉडी लैंग्वेज ऐसी न दिखी कि वे स्वेच्छा से पुराने वस्त्रों का परित्याग कर

रहे हैं, शायद आत्मा पर दलबदलू होने का बोझ कुछ ज्यादा लगता है।

वैसे गंगा घाट पर आए इस प्राणी पर रिश्वतखोरी, चुनाव में अनुचित आचरण,

झूठे बयान देना, वसीयत में जालसाजी, जाली दस्तावेज तैयार करने और

धोखाधड़ी जैसे कई अभियोग पंजीकृत हैं।

इसके अलावा सत्ता सुख भोगने के दौरान करीब चार हेक्टेयर से ज्यादा जमीन कब्जाने,

बेतहाशा संपत्ति बटोरने जैसे इल्जाम भी कम नहीं हैं। पुश्तैनी तौर पर तो सात सौ मीटर

जमीन ही मिली थी लेकिन उत्तराखंड राज्य बनने और उसमें भी तीन बार पंच बनने का मौका 

क्या मिला – तुरत फुरत  रिजॉर्ट के मालिक बन बैठे , वरना कोई फैक्ट्री तो थी नहीं और न ही

कोई बड़ा कारोबार, फिर मात्र दो दशक में इतनी संपत्ति?

सरकार को दिए ब्यौरे में हैसियत पांच करोड़ बताई थी। खैर यह पता नहीं चला है – जमीन कब्जाने के

मामले में भयादोहन हुआ या कोर्ट कचहरी के भय से हृदय परिवर्तन।

शुचिता और राम राज्य के जुमले बाज सत्तर साल से चांदी कूटते लोगों के लिए

पलक पावड़े बिछाये प्रतीक्षारत हैं।
लोग तो यह भी कह रहे हैं कि गंगा स्नान करवाने वालों ने शायद दुखती रग पर

हाथ रख दिया हो, वरना बुढ़ापे में कोई गोत्र थोड़े बदलता है।

वो कहते हैं न कि “कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, वरना यूं ही कोई बेवफा

नहीं होता।” बेवफा भी ऐसे मौसम में हुए जब घर के लोगों को सबसे ज्यादा जरूरत थी।

ऐसे में डाकू खड़क सिंह और बाबा भारती की वो कहानी याद आ जाती है,

जिसमें बाबा डाकू से कहते हैं कि अपना भेद मत बताना, वरना भविष्य में लोग

साधुओं पर भरोसा करना छोड़ देंगे। राजनीति के डाकू खड़क सिंह और बाबा भारती 

का वार्तालाप दुबारा लिखने का समय आया है। 
कुछ इसी तरह अनुमान से ज्यादा गर्म हो रहे मौसम में सामने आ रहा है। इससे पक्के तौर

पर लगता है – कुछ नहीं पूरा गड़बड़ झाला है।

— दिनेश शास्त्री सेमवाल, स्वतंत्र पत्रकार।

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