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आपातकाल पचासवीं बरसी: लोकतंत्र बनाम अनुशासन !

स्याह पन्नों में कुछ तो उजियारा रहा होगा या सब कुछ श्रीमती इंदिरा गांधी की सत्ता वापसी के बाद खत्म..?

आपातकाल पचासवीं बरसी: लोकतंत्र बनाम अनुशासन !
स्याह पन्नों में कुछ तो उजियारा रहा होगा या सब कुछ श्रीमती इंदिरा गांधी की सत्ता वापसी  के बाद खत्म..?
 – दिनेश शास्त्री सेमवाल।

देश के राजनीतिक क्षितिज पर मंगलवार, 25 जून को सत्तारूढ़ भाजपा ने

आपातकाल की 50वीं बरसी पर “डार्क डेज ऑफ डेमोक्रेसी” के नाम से लोगों को

21 महीने की लम्बी रातों की याद दिलाई।
मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने कोई प्रतिवाद नहीं किया तो जाहिर है उसने बुद्धिमत्ता से

उन यादों के भंवर में उलझने से परहेज किया।
किसी अन्य दल ने भी भाजपा के नेरेटिव को तवज्जो नहीं दी तो साफ हो गया कि लोग

उन काले दिनों को भूल गए हैं।


देखा जाए तो आज की भाजपा (तब जनसंघ) से ज्यादा समाजवादी नेताओं को

प्रताड़ना झेलनी पड़ी थी। अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा इस कदर था कि अखबारों के

मुंह सी दिए गए थे।
सिर्फ ठकुरसुहाती के लिए ही देश में जगह रह गई थी। कुछ अखबारों ने पहले पन्ने

खाली छोड़े तो उसकी कीमत भी उन्होंने चुकाई।

दूसरी कालिख थी जबरन नसबंदी। और तीसरी कालिख थी नागरिकों के मौलिक

अधिकारों को निलंबित किया जाना।

बेशक तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की यह अपनी इच्छा न रही हो

लेकिन सिस्टम ऐसा बना कि देश की जनसंख्या नियंत्रित करने के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम

बन गया। अकेले दिल्ली जामा मस्जिद क्षेत्र के 13 हजार लोगों की नसबंदी करवा दी गई।

 

उस दौर में एक और काम हुआ था – सघन वृक्षारोपण का। जैसे आज स्वच्छता अभियान को

तवज्जो दी जा रही है, तब वृक्षारोपण राष्ट्रीय कार्यक्रम बन गया था।
यह अलग बात है कि उस कालखंड में उत्तराखंड में तो सर्वाधिक युकिलिप्टस के

पौधे ही रोपे गए।

इमरजेंसी का उजियारा पक्ष यह था कि एक झटके में पूरे देश में वस्तुओं के

दाम नियंत्रित हो गए थे।

श्रीमती इंदिरा गांधी ने राष्ट्र की प्रगति के लिए नारा दिया – एक ही जादू – कड़ी मेहनत,

दूर दृष्टि, पक्का इरादा और अनुशासन।

बस इसी सूत्र वाक्य के मुताबिक वो 21 महीने बीते। सीमांत चमोली जिले में तो चीनी के दाम

प्रति किलो एक रुपए अस्सी पैसे थे।
सोने की कीमत जो इमरजेंसी लागू होने से पहले प्रति तोला 532 रुपए के आसपास थे,

वह अचानक गिर कर 425 रुपए प्रति तोला आ गए थे।
वर्ष 1976 में तो उसमें और गिरावट दर्ज हुई थी। तभी  बीस सूत्री कार्यक्रम भी बना था,

जो रूपांतरित होकर आज भी चल रहा है।

उस स्याह दौर की अच्छी बात यह थी कि उस समय दफ्तरों में समय पर काम

होने लगा था, बस हो या ट्रेन, सब समय पर थे।

मुनाफाखोरी, चोरबाजारी यहां तक की घूसखोरी अतीत की सी बात हो गई थी।

तब न तो कोई खनन माफिया था, न शराब माफिया।
सरकारी दफ्तरों में दलाली तो कोई जानता भी नहीं था। कमी थी तो यह कि जो कोई व्यवस्था पर

सवाल खड़े करता तुरंत सलाखों के पीछे पहुंचा दिया जाता था।

उन दिनों राजेश खन्ना का हेयर स्टाइल बेहद चर्चित था। युवा वर्ग उनके जैसे लम्बे बाल

और बेल बॉटम पेंट में जहां कहीं नजर आते तो उन्हें टोक दिया जाता था।

तत्काल बाल कटवाने का फरमान स्कूल कॉलेज में जारी हो जाता था। बेल बॉटम पेंट पर

कैंची चला दी जाती थी।
त्रियुगीनारायण के प्रयाग दत्त ने कुछ बातों पर असहमति व्यक्त की तो उन्हें मीसा में

जेल भेज दिया गया था। ऐसे अनेक लोग थे, जिनकी कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं थी

किंतु सरकार को इस तरह के स्वर मंजूर नहीं थे।

दूसरी ओर उस दौर में स्कूल हो या अस्पताल। वहां शिक्षक भी होते थे,

डॉक्टर भी पूरा दिन बैठते थे।
तब सरकारी अस्पताल का डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस नहीं करता था।

अस्पताल में सिर्फ पर्ची नहीं बल्कि दवा भी मिलती थी।
दुकानों पर रेट लिस्ट लगी होती थी। ग्राहक से एक पैसा ज्यादा वसूलने

पर सीधे मीसा लग जाता था।
कमी थी तो यह कि सब कुछ ठीक होने के बावजूद लोगों के मुंह पर ताला

लगा था। इस तरह आप कह सकते हैं – आपको सिर्फ बोलने की आजादी नहीं थी।

पिंजरे में कैद पंछी को समय पर भोजन मिल जाता था और पूरा देश अनुशासन

में बंधा था।
मुंह पर ताला लगे होने का ज्यादा असर इसलिए नहीं दिखा था कि तब आज की तरह

मीडिया के विभिन्न प्रकल्प नहीं थे।
विजुअल मीडिया के नाम पर ले देकर सरकारी रेडियो और सरकारी दूरदर्शन।

दूरदर्शन पर भी एक सुबह की सभा और एक शाम की सभा। अखबार तो

पूरी तरह नियंत्रित थे।


उत्तर प्रदेश में तो सभी ग्राम पंचायतों में लखनऊ के एक खास अखबार को

अनिवार्य कर दिया गया था। नेता आज भी चरण चुम्बन करते देखे जाते हैं,

तब तो खड़ाऊ लेकर चलते नेता भी थे लेकिन वे फोटो इमरजेंसी हटने के बाद

ही सामने आए थे।
सोशल मीडिया तो उस समय कल्पना से भी परे था। मीडिया की सीमित पहुंच के

बावजूद लोगों में आक्रोश जरूर था लेकिन वह उत्तर भारत में ज्यादा था।

इसका एक कारण यह भी गिनाया जाता है कि दक्षिण भारत के राज्यों में

इमरजेंसी की ज्यादतियां बहुत कम रही।
इमरजेंसी के बाद वर्ष 1977 में चुनाव हुए तो जनता पार्टी 345 सीटें जीती और

कांग्रेस को मिली 189 सीटें। यानी जनता पार्टी को 233 सीटों का फायदा हुआ

तो कांग्रेस को 217 सीटों का नुकसान।

कांग्रेस को दक्षिण भारत में ज्यादा सीटें मिली जबकि उत्तर भारत में उसे भारी

नुकसान उठाना पड़ा। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि इमरजेंसी की ज्यादतियां

उत्तर भारत के लोगों ने ही ज्यादा झेली थी। खुद प्रधानमंत्री श्रीमती  इंदिरा गांधी

रायबरेली सीट से चुनाव हारी थी।
इसका एक कारण यह माना जाता है कि विद्याचरण शुक्ल, बंसी लाल जैसे इमरजेंसी का

क्रियान्वयन करने वाले ज्यादातर नेता उत्तर भारत से ही थे। दक्षिण में इन नेताओं की

न तो पहुंच थी और न प्रभाव।

इस लिहाज से देखें तो इमरजेंसी का जितना स्याह पक्ष था, उतना ही उजला

पक्ष भी था। आज बेशक उस दौर के लोगों की संख्या कम हो, नौजवानों ने वह दौर

नहीं देखा किंतु निष्पक्ष होकर विश्लेषण करें तो कई अर्थों में वह आपातकाल

जनसामान्य के लिए तो अच्छा ही था, केवल मुंह पर मास्क ही तो था।
पदचिह्न टाइम्स।

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