सनातन परम्परा : बदरीनाथ धाम में आलौकिक वसुधारा और लक्ष्मी वन !
आठवीं सदी में देश की चारों दिशाओं में शंकराचार्य ने स्थापित किए - वेद शिक्षा गुरूकुल।
सनातन परम्परा : बदरीनाथ धाम में आलौकिक वसुधारा और लक्ष्मी वन !
आठवीं सदी में देश की चारों दिशाओं में शंकराचार्य ने स्थापित किए – वेद शिक्षा गुरूकुल।
सनातन धर्म के चार धाम – चार तीर्थ और चार वेदों की अध्ययन व अध्यापन परम्परा को समृद्ध रखने के लिए आठवीं सदी में शंकराचार्य ने विशेष प्रयास किए।
पूर्व में उड़ीसा प्रदेश के जगन्नाथ धाम में ऋग्वेद, पश्चिम में गुजरात प्रांत के द्वारकाधाम में सामवेद की दीक्षा का गुरूकुल बना है।
इसी प्रकार दक्षिण के तमिलनाडु प्रांत में रामेश्वर धाम में यजुर्वेद और उत्तर के उत्तराखंड प्रांत में स्थित बदरीनाथ धाम में अथर्ववेद की शिक्षा – दीक्षा की गुरू परम्परा चली आ रही है।
बदरीनाथ मंदिर के ठीक पीछे नारायण पर्वत और सामने का नर पर्वत निराकार पंथियों में अराध्य हैं।
पुरातन कथाओं में श्री हरि – विष्णु भगवान ने छह माह पृथ्वी के इस भू भाग में कठोर तप किया। माँ लक्ष्मी ने तब बदरि यानि बेर की झाड़ी बनकर विष्णु भगवान के लिए छाया और सेवा कार्य किए।
माँ लक्ष्मी के बदरि रूप को ही बदरीनाथ धाम का नाम मिला है। बदरीनाथ मंदिर में माँ लक्ष्मी, भगवान विष्णु, कुबेर, नारद, नर व नारायण की मूर्तियां पूजी जाती हैं।
बदरीनाथ धाम के नैसर्गिक परिसर में अलकनंदा का बर्फीला अमृत प्रवाह है।
आज बदरीनाथ क्षेत्र छह माह के लिए नगर पंचायत कहलाता है। इस में बामणी और माणा गांव के मूल निवासी यात्रा काल के बाद अपने दूसरे पड़ाव में विस्थापन कर जाते हैं।
आईटीबीपी और सेना ही स्थायी तौर पर यहां चीन अधिग्रहित तिब्बत सीमा पर मुस्तैद है।
अलकनंदा नदी के उदगम की ओर बढ़ें तो माणा गांव से चार – पांच घंटे की पदयात्रा के बाद अलकनंदा एक ग्लेशियर के नीचे से निकलती नज़र आ रही है।
यह ग्लेशियर भगीरथ खर्क ग्लेशियर कहलाता है। बायीं ओर से आती सतोपंथ ग्लेशियर की धारा भी अलकनंदा के साथ संगम बनाती है।
यहीं पर बर्फीले शिखरों से ग्लेशियर नीचे हरित बुग्याल तक फिसल कर आये हैं – अलकनंदा प्रथम दर्शन इसी लक्ष्मी वन बुग्याल से मिलते हैं।
लक्ष्मी वन से अगला पड़ाव दस किमी दूर चक्र तीर्थ है। चक्रतीर्थ से सतोपंथ तक पांच किमी दूरी के लिए यात्री लौट फेर करते हैं।
लक्ष्मी वन में अब बेर की झाड़ियां तो नहीं हैं लेकिन भोज पत्र के पेड़ मिलते हैं।
भोज पत्र वृक्ष की छाल का उपयोग प्राचीन काल में पांडुलिपि लेखन में किया जाता था।
माणा से छह किमी दूरी पर एक जल प्रपात ऊँची बर्फीली चोटियों से बहता आ रहा है – वसु धारा नाम का यह प्रपात बदरीनाथ का पिता माना जाता है।
माणा गांव के मुहाने पर माता मूर्ति का मंदिर है और माता मूर्ति बदरीनाथ की माता मानी जाती हैं। हर साल बदरीनाथ भगवान की डोली माता मूर्ति मंदिर में भव्य उत्सव आयोजित कर लायी जाती है।
वन विभाग पर्यावरण संरक्षण, चारागाह व पर्यटकों पर अंकुश रखने के लिए नाम मात्र की व्यवस्था में है।
जोशीमठ के डीएफओ परमिट जारी करने तक सीमित लगते हैं क्योंकि माणा के आगे वन विभाग के कर्मी नहीं मिलते हैं।
भेड़, बकरियों के रेवड़, लक्ष्मी वन में पर्यटकों के टैंट सब कुछ राम भरोसे चल रहे हैं।
सतोपंथ की ट्रेकिंग आयोजित करने वाले बदरीनाथ के टूर आपरेटर बिना मेडिकल व्यवस्था और एक्सपर्ट गाइड के पर्यटकों की जान जोखिम में डाल रहे हैं।
बदरीनाथ धाम पुलिस प्रशासन किसी बड़ी दुर्घटना से पहले इन टूर आपरेटर्स को निगरानी में लेना है ताकि देशी – विदेशी पर्यटकों को यथोचित जान माल की हिफाजित रहे।
– भूपत सिंह बिष्ट