जब तक चढूँगी नहीं , तब तक छोड़ूंगी नहीं – एवरेस्ट विजेता मेघा परमार !
एवरेस्ट चढ़ने के लिए रीढ़ की हड्डी टूटी ,स्नो ब्लाइंडनेस झेला तब मिली जिद्दी बेटी को विश्व में पहचान।

जब तक चढूँगी नहीं , तब तक छोड़ूंगी नहीं – एवरेस्ट विजेता मेघा परमार !
एवरेस्ट चढ़ने के लिए रीढ़ की हड्डी टूटी ,स्नो ब्लाइंडनेस झेला तब मिली जिद्दी बेटी को विश्व में पहचान।
मध्यप्रदेश के सीहोर जनपद के भोजपुर गांव में 1994 में जन्मी मेघा परमार ने 22 मई 2019 को विश्व की
सबसे ऊँची छोटी एवरेस्ट , जिसे नेपाल में सागर माथा भी कहा जाता पर सफल पर्वतारोहण किया।
गांव की पृष्ठ भूमि से पर्वतारोहण जैसे महंगे शौक में शानदार सफलता अर्जित करने वाली मेघा का बचपन
शरारती लेकिन चुनौतियों से भरपूर रहा है।
बारहवीं पास कर विवाह के बंधन का सपना देखने वाली मेघा को संसार के सबसे ऊँचे शिखर पर मेघों के
साथ उड़ान भरनी थी सो कुश्ती में हाथ आजमा चुकी मेघा परमार ने पुरुषों के एकाधिकार वाले खेल
पर्वतारोहण को चुन लिया।
एवरेस्ट पर्वतारोहण के लिए 25 लाख जुटाना ग्रामीण परिवेश की लड़की के लिए पूरा अभियान था। ऐसे में
मध्यप्रदेश सरकार ने मेघा परमार को दो बार एवरेस्ट अभियान के लिए प्रायोजित किया।
मई 2018 में एवरेस्ट अभियान की बारीकियों से दो – चार होती मेघा परमार शिखर से मात्र 750 मीटर
पहले मौसम और तकनीकी बाधाओं के कारण असफल रही।
एवरेस्ट अभियान के सहयोगी शेरपा ने कहा – मेघा , पहाड़ वहीं है और हम दो- बारा कर लेंगे। शेरपा ने
मेघा को और बेहतर तैयारी और स्पीड बढ़ाने के लिए प्रेरित किया।
मेघा परमार ने जागरण के संवाद उत्सव में श्रोताओं का आह्वान किया – एवरेस्ट की पहली असफलता ने
निराश किया लेकिन अब दुगने जोश से कैंप एक से चार तक की सभी बाधाओं को पार करने की योजना
बनाई गई। दुर्भाग्य वश 4 जुलाई 2018 को मनाली पर्वतारोहण संस्थान में ट्रेनिंग लेते हुए ऊंचाई से गिरकर
रीढ़ की हड्डी में तीन जगह घातक चोट आई और डाक्टरों ने तीन माह बेड रेस्ट की ताकीद कर दी।
भोपाल में ईलाज के दौरान एक पल भी एवरेस्ट अभियान छोड़ने का ख्याल नहीं आया।
एवरेस्ट बेस कैंप 5345 मीटर पर दिल ऐसे धड़कता है मानो 10 मंजिल की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। दो माह
एवरेस्ट अनुकूलन के लिए कैंप -एक और कैंप -दो के बीच रहने , ग्लेसियर खोदने , 8 -9 घंटे पहाड़
चढ़ने – उतरने के अभ्यास में जीवन और मृत्यु का अहसास हो जाता है। फ्रिज में रखी बर्फ और बर्फीली
पहाड़ियों में शून्य से नीचे तापमान में पानी और सूप पर जीवन यापन टेढ़ी खीर है।
कैंप – चार से पर्वतारोहियों के पार्थिव शरीर लाने की कोई व्यवस्था नहीं है क्योंकि हवा के लो -प्रेशर से हैली में
आग लगने की सम्भावना रहती है। कैंप -तीन से आगे या तो सफलता इंतजार कर रही है या मौत से
रुबरू होना है।
दुनिया की सर्वोच्च शक्ति भगवान ने मेरी सुन ली और 22 मई 2019 में भोजपुर गांव की बालिका तड़के
भोर में भारत का झंडा लेकर एवरेस्ट के शिखर पर खड़ी थी।
दुनिया की सबसे ऊँची 8849 मीटर चोटी एवरेस्ट में गर्मियों का तापमान शून्य से नीचे माइनस 29 डिग्री
और सर्दियों में माइनस 60 डिग्री तक बर्फीले तूफानों के बीच होता है।
कैंप चार 7925 मीटर को मृत्यु लोक और साउथ कोल के नाम से पुकारा जाता है – यहीं से समिट
यानि चोटी को फ़तेह करने का अंतिम चरण पूरा करना होता है। बिना ऑक्सीजन और हवा के दबाव
में यहाँ रुकना मौत की आहट सुनना है। ग्लेशियर के टूटने से मृत पर्वतारोहियों के शरीर बर्फ से बाहर
निकल आते हैं और कई बार एवरेस्ट चढ़ने वाले इनके साथ रात बिताने को विवश रहते हैं।

मेघा परमार का ऑक्सीजन कैंप चार से नीचे आते हुए समाप्त हो गया तो अभियान में शामिल पूना की
पर्वतारोही अंजलि कुलकर्णी का ऑक्सीजन सिलेंडर उन्हें मिला , जिनकी अचानक वहां मौत हो गई थी।
एवरेस्टर मेघा परमार स्पोर्टस टीचर, स्कूबा डाइवर और रोमांचक खेलों की प्रेरक भी हैं। शेरपा को
अपना पारिवारिक सदस्य मानने वाली मेघा अब साहस की अनेक रेखाएं बनाना चाहती है।
बचपन में घर – खलियानों में उठाया बोझा और पानी, मेघा के लिए आगे चलकर पर्वतारोहण के
रोमांचक खेल में पीठ पर 25 किलो बैग और 2 किलो के क्रैंप लगे बूट पहनकर बर्फीली शिखर चढ़ने में सहयोगी साबित हुए।
प्रस्तुति – भूपत सिंह बिष्ट।