संवेदनशील राजनेता रहे प्रथम मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी !
जनसंघ से लेकर बीजेपी के प्रथम मुख्यमंत्री तक का सफर मधुरभाषी अधिवक्ता स्वामी ने विविधता के साथ जिया।
भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष स्व अटल बिहारी वाजपेई के समकालीन
नित्यानन्द स्वामी को उत्तराखण्ड राज्य के प्रथम मुख्यमन्त्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
तब उत्तराखण्ड की स्थापना उत्तरांचल राज्य के रूप में हुई थी। हालांकि उनका कार्यकाल बहुत सीमित रहा।
स्वामी जी नवम्बर 2000 से लेकर 29 अक्टूबर, 2001 तक मुख्यमंत्री पद पर रहे।
नित्यानंद स्वामी का जन्म 27 दिसंबर, 1927 को हरियाणा के रेवाड़ी जिले में हुआ था।
उन्होनें अपना लगभग सारा जीवन देहरादून में बिताया – यहाँ उनके पिता भारतीय वानिकी संस्थान में कार्यरत थे।
कम आयु में ही नित्यानंद स्वामी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से जुड़े
और देहरादून में उन्होंने अनेक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभायी।
स्वामी जी पेशे से एक वकील थे। इस कारण लोक प्रशासन उनकी रुचि का स्वाभाविक विषय रहा।
लिहाजा जिस दिन हम ऐसे बालश्रम करने वाले बच्चों के लिए उचित रोजी रोटी का प्रबंधन करवा पायें – तभी ऐसे स्थानों पर आवश्यक कार्यवाही का काम किया जायेगा।
ऐसे उदारमना व्यक्तित्व का सहज ही स्मरण स्वाभाविक है।
अटल जी के नेतृत्व में जन संघ से जुड़कर उन्होंने सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया।
व्यावसायिक रूप से वकील नित्यानन्द स्वामी पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गए और बाद
में भारतीय जनता पार्टी में पहुँचे।
राजनीति की सीढ़ी चढ़कर, वह गढ़वाल और कुमाऊँ के सबसे बड़े स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से विधान परिषद में चुने गए।
नित्यानंद स्वामी जी 1991 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के उप सभापति बने और 1992 में सर्वसम्मति से
उसी के सभापति चुने गए।
वरिष्ठ होने और वाजपेई जी से निकटता के नाते उन्हें वर्ष 2000 में उत्तरांचल (अब उत्तराखण्ड) के पृथक राज्य बनने पर,
भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें नए राज्य का मुख्यमन्त्री बनाया।
भाजपा की आंतरिक कलह के चलते उन्हें 29 अक्टूबर 2001 में पदत्याग करना पड़ा।
उसके बाद क्या हुआ, नए राज्य में कैसे बार – बार मुख्यमंत्री खोजने का उपक्रम चल निकला, यह बताने की जरूरत नहीं है।
बहरहाल अपने सीमित कार्यकाल में उन्होंने बेहद संजीदगी से अंतरिम सरकार चलाई।
उसके बाद हुए पहले चुनाव में पराजय के बाद भी वे सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहे और देहरादून के
गांवों को अधिग्रहण से बचाने के लिए संघर्षरत रहे।
12 दिसंबर 2012 को उन्होंने अंतिम सांस ली। आज बेशक उन्हें उस तरह याद न किया जाता हो लेकिन
एक संवेदनशील राजनेता के रूप में उनकी पहचान हमेशा बनी रहेगी।
— दिनेश शास्त्री ।