प्रकृति के साथ मानव के रिश्तों को प्रकट करता पर्व – सातूं-आँठू !
म्यर मैत जान्या बाटो कां होला - नेपाल और भारत की साझी संस्कृति का एक बड़ा लोक पर्व
प्रकृति के साथ मानव के रिश्तों को प्रकट करता पर्व – सातूं-आँठू !
म्यर मैत जान्या बाटो कां होला – नेपाल और भारत की साझी संस्कृति का एक बड़ा लोक पर्व
सातूं-आठूं जो गमरा-मैसर अथवा गमरा उत्सव के नाम से भी जाना जाता है।
दरअसल नेपाल और भारत की साझी संस्कृति का एक बड़ा लोक पर्व है। हिमालयी परम्परा
का यह पर्व सीमावर्ती काली नदी के आर-पार बसे गांवों में समान रुप से मनाया जाता है।
सातूं-आठूं का मूल उद्गम क्षेत्र पश्चिमी नेपाल है, जहां दार्चुला, बैतड़ी, डडेल धुरा व डोटी अंचल में
यह पर्व सदियों से मनाया जाता रहा है।
भारत से लगे सीमावर्ती गांवो के मध्य रोजी व बेटी के सम्बन्ध होने से अन्य रीति-रिवाजों की
तरह इस पर्व का भी पदार्पण कुमाऊं में हुआ।
वर्तमान में यह पर्व पिथौरागढ़ जनपद के सोर, गंगोलीहाट, बेरीनाग इलाके, बागेश्वर जनपद के
दुग, कमस्यार ,नाकुरी तथा चम्पावत जनपद के मडलक व गुमदेश इलाकों में अटूट श्रद्धा व
आस्था के साथ मनाया जाता है।
इस उत्सव में गौरा-महेश्वर की गाथा गाई जाती है । महादेव शिव – गौरा पार्वती के विवाह व
उनके पुत्र गणेश के जन्म तक तमाम प्रंसगों का उल्लेख मिलता है।
बिण भाट की कथा, अठवाली ,आठौं या सातूं-आठूं की कथा के नाम से प्रचलित यह धार्मिक गाथा
प्रत्यक्षतः हिमालय के प्रकृति-परिवेश व स्थानीय जनमानस से जुड़ी है।
गौरा-महेश्वर की गाथा में हिमालय की तमाम वनस्पतियों-बांज, हिंसालू, घिंगारु,नीबूं, नारंगी,
ककड़ी, किलमोड़ी और काफल, चीड़ , देवदार सहित अनेक वृक्षों तथा वन लताओं का वर्णन
अलौकिक व गूढ़ है।
गीत – गाथाओं में स्पष्ट है कि हमारे पुरखों को इन तमाम वनस्पतियों की उपयोगिता और उसके
पर्यावरणीय महत्व की अच्छी तरह से समझ रही है।
गौरा के मायके जाने पर चीड़ को छोड़कर अन्य सभी वनस्पतियों की संवेदनशीलता प्रमुखता
से उभर आती है । वे गौरा का सहचर बन, उसका मार्ग प्रसस्त करते हैं।
इसमें देवदार का वृक्ष बहुत ही आत्मीयता के साथ गौरा को अपनी पुत्री कहकर सम्बोधित
करता है और उससे अपनी छांव में मायके का आश्रय पाने का अनुरोध करता है।
मानवीय कल्पना में प्रकृति और मानव के आपसी रिश्तों को अभिव्यक्ति देने की कोशिश
पर्व की गाथा में की गयी है।
गाथा में आये प्रसंगों के अनुसार गौरा ने चीड़ को अभिशप्त किया हुआ है।
गौरा महेश्वर गाथा में शिव व पार्वती अपने देव रुप से इतर आम मनुष्य के रूप में
अवतरित हुए हैं।
कुल मिलाकर श्रुति परम्परा पर आधारित गाथाओं व लोकगीतों में गौरा और महेश्वर
हिमालय वासियों के साथ एक अत्यंत ही आत्मीय रिश्ते में नजर आते हैं।
पहाड़ के लोक ने निश्छल भाव से गौरा को बेटी/दीदी तथा महेश्वर को जवाईं/भीना (जीजा) के
रुप में प्रतिस्थापित किया हुआ है जो कि अन्यत्र र्दुलभ है।
– चन्द्रशेखर तिवारी, शोध सहायक,
दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून