इतिहासराजनीतिविविध

उत्तराखंड लोकसभा चुनाव 2024 में  फिर  मतदाताओं ने किया निराश !

नाकामी सिस्टम की , सरकार या  निर्वाचन आयोग अब लोकतंत्र से परे कहीं और सक्रीय हो गए। 

उत्तराखंड लोकसभा चुनाव 2024 में  फिर  मतदाताओं ने किया निराश !
नाकामी सिस्टम की , सरकार या  निर्वाचन आयोग लोकतंत्र से परे कहीं और सक्रीय हो गए। 

  • दिनेश शास्त्री सेमवाल , पत्रकार।

उत्तराखंड में अनंतिम आंकड़ों के मुताबिक शुक्रवार को शाम पांच बजे तक

53.56 फीसद मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया।

दूरदराज के मतदान केंद्रों के आंकड़े संकलित होने में विलम्ब के बावजूद अगर यह

आंकड़ा खींच तान कर 58 फीसद तक पहुंच भी जाए तो भी यह स्थिति बेहद निराशाजनक है।

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में इस बार पांच फीसद कम मतदाता

मतदान केंद्र तक पहुंचे। हो सकता है कल तक मतदान का आंकड़ा कुछ बढ़ जाए।

सर्विस और पोस्टल बैलेट इस बार कुछ ज्यादा हो सकता है। उसे अगर सौ फीसद भी

मान लिया जाए तो कुल मतदाताओं का वह मात्र एक फीसद के करीब  ही तो है।

हमारे 83 लाख से थोड़े अधिक मतदाताओं में पोस्टल बैलेट की संख्या करीब सवा लाख  ही तो है।

देश में लोकतंत्र का महापर्व – केंद्र सरकार के चुनाव में इस कदर उदासीनता 
यह नाकामी किसकी है?

यह सवाल निर्वाचन आयोग पर है –  प्रदेशभर में वृहद मतदाता जागरूकता अभियान चलाया।

सरकार की नीतियां लोगों को बहुत ज्यादा पसंद हैं तो वे मतदान से दूर क्यों  हुए  ?

 सरकारी मशीनरी आखिर  बुनियादी जरूरतों के लिए कब जिम्मेदार होगी ,

किस अभाव में लोग  मतदान के प्रति उदासीन हो रहे हैं ।

 दो चार उदाहरण देखिए  – चमोली के देवराडा गांव के लोग अपनी ग्राम पंचायत से

संतुष्ट थे लेकिन  राज्य सरकार ने उन पर नगर पंचायत थोप दी। 

जिसकी जनता ने  कभी मांग ही नहीं की थी। यानी ग्राम पंचायत की बेशकीमती जमीन पर

भूमाफिया  की गिद्ध दृष्टि पर लोगों ने एतराज जताया और कोई वोट देने नहीं निकला।

नैनीताल के जलाल गांव का उदाहरण लीजिए – वहां आपदा से तबाही हुई,

बुनियादी सुविधाओं का सर्वथा अभाव है। इस कारण लोगों ने मतदान ही नहीं किया।

मात्र 15 लोगों ने वोट दिया, वे या तो सरकारी कर्मचारी हैं , या फिर किसी तरह मनाए गए लोग।

इसी तरह चमोली के सकंड गांव के लोगों ने सड़क की मांग की लेकर

चुनाव बहिष्कार किया है । उत्तरकाशी में भी कई गांवों के लोगों ने इसी तरह का रुख

अपनाया। कुछ ने प्रशासन की मान मनोब्बल के बाद अपना इरादा बदला लेकिन

कई लोग अपने फैसले पर अडिग रहे। ऐसी एक नहीं अनेक  जगहों पर लोगों ने

अपनी नाराजगी जाहिर की है।

यह कुछ ऐसे उदाहरण हैं – जो बीते 24 साल के तथाकथित विकास की कुंडली खोलते हैं।

सरकार और प्रशासन अगर तीसरे दशक को उत्तराखंड का दशक बनाने का

ढोल पीट रहे हैं तो लोगों के  सवाल हैं – आज तक पहाड़ों में  स्कूल के शिक्षक, अस्पताल में डॉक्टर,

पीने का पानी, सड़क और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं से उन्हें वंचित

क्यों रखा गया  है?

मतदान में कमी  सरकारों की नाकामी और लोकप्रियता का आईना भी हो सकता है – क्यों किसी

गांव में नगर पंचायत बनाई जाए, जबकि लोगों को वह मंजूर ही नहीं।

सत्ता में बैठे नेताओं अथवा अफसरों की सनक आम लोगों पर क्यों लाद दी जाए।

निश्चित रूप से सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे अपनी इस नाकामी को कभी नहीं मानेंगे।

चाहे सत्ता में कोई भी दल हो ! जनता की इच्छा का सम्मान हो तो  लोकतंत्र के महापर्व पर

अधिक से अधिक जनमानस और नतीजे  निर्वाचन आयोग के अनुरूप रहेंगे। 

ALAM SINGH PANWAR RETIRE ARMYMAN

लोकतंत्र के लम्बरदार दल और नेता मतदाताओं के बीच सकारात्मक छवि बनाने में 

नाकामयाब दिखते हैं।  प्रदेश की एक लोकसभा में 73 – 70 वर्ष के उम्रदराज नेता

नेशनल पार्टी प्रत्याशी बने तो विरोध में 26 साल का युवा मैदान में उतरा है। 

अपने खांटी नेताओं के मोहपाश में युवा चेहरे गायब हैं।  आयोग हमेशा नए वोटर्स 

का दम भरता नज़र आता है लेकिन नेताओं की नई पीढ़ी गायब दिखती है। 

उत्तराखंड में पहाड़ी वोटर की समस्यायें मैदान से अलग हैं।  दुर्गम पहाड़ी इलाकों में 

रोज़गार के लिए पलायन , पहाड़ी महिला की उपेक्षा , जीवन की निराशा में नेताओं की भूमिका

और प्रशासन की नाकामी को दूर करना जरुरी है। 

अन्यथा गढ़वाल लोकसभा , अल्मोड़ा लोकसभा और टिहरी लोकसभा 

की पहाड़ी विधानसभाओं में  मतदान के आंकड़े चुनाव दर चुनाव सिस्टम पर सवालिया 

निशान दाग़ते रहेंगे। 

– पदचिह्न टाइम्स।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!