चार सिंग वाली भेड़ की अगुवायी बिना नंदा राजजात नामुमकिन !
सुभाष चंद्र मझखोला डायरी भाग दो - मां नंदा देवी का आशीर्वाद हमें हर दिन स्नेह और आशीष बनकर मिला।
चार सिंग वाली भेड़ की अगुवायी बिना नंदा राजजात नामुमकिन !
सुभाष चंद्र मझखोला डायरी भाग दो – मां नंदा देवी का आशीर्वाद हमें हर दिन स्नेह और आशीष बनकर मिला।
खाडू की अपूर्व सुरक्षा देखकर मन रोमांच से भर गया।
यदि कोई असामाजिक तत्व माँ नंदा के इस प्रतिनिधि को क्षति पंहुचाने का दु:साहस करे तो
कानून व्यवस्था के बिगड़ने का खतरा हो सकता है।
जात के सारे निशाण, डोली, छँतोली और खाडू रात्रि विश्राम के लिए शिव श्री नंदा मंदिर में एकत्र हो गये थे।
महिलाएं स्थानीय परिधान, नथ – बुलाक पहने हुए श्रद्धा और प्रेम से मां नंदा के लिए मांगल गीतों को गा रही थी।
उत्तराखंड की महिलायें अपनी संस्कृति, वेश भूषा, धर्म परायणता और माँ नंदा में गहरी निष्ठा रखती हैं।
श्री नंदा मंदिर में हमने माँ नंदा की स्वर्ण मूर्ति, चौसिंघिया खाडू और निशाण के दर्शन किये।
इस के पश्चात भंडारे का अन्न जल ग्रहण हुआ फिर कार से स्लीपिंग बैग लिये और रात्रि विश्राम के लिये स्कूल के भवन में दरी के ऊपर अपने – अपने स्लीपिंग बैग में घुस गये।
थकान के कारण कब नींद आयी पता ही नहीं चला, आँख खुली तो भोर हो रही थी ।
आज राजजात यात्रा को नंदकेशरी से फलदिया गांव की ओर अपने दसवें पड़ाव पर निकलना था।
और हम दोनों सुबह दैनिक कार्यों से निवृत होकर चाय आदि पीकर फलदिया गांव के ऊपर सड़क
किनारे के गांव उलंगरा पहुँच गये।
उलंगरा गांव में अधिकतर फरस्वाण जाति के लोग रहते हैं। जिनके पूर्वज राजा के कुशल योद्धाओ में गिने जाते थे।
सड़क पर फरस्वाणजी के होटल में गर्म – गर्म पहाड़ी आलू की पकोड़ी की गंध से रहा न गया।
चाय – पकोड़ी का स्वाद लिया। पहाड़ो में पकोड़ी में करिया पत्ता ड़ालते हैं तो स्वाद और और बढ़ जाता है।
पहले हम आगे बाण गांव की ओर निकलने वाले थे – फिर होटल मालिक फरस्वाण जी के प्रेमपूर्ण
व्यवहार को देख रात उन्ही के होटल में बिताने का निश्चय किया।
हमने उनसे कमरे का किराया पूछा तो उन्होंने कहा – मै खाने नाश्ते आदि के ही पैसे लूँगा
और कमरे का कोई किराया नहीं लूँगा।
फरस्वाणजी की सज्जनता के आगे हमने समर्पण कर दिया और अपना सामान लेकर कार को आगे
सुरक्षित जगह पर खड़ा किया और कमरे में दरी के ऊपर अपना स्लीपिंग बैग तान दिया।
बाहर सड़ क पर बैठकर नंदा पर्वत और आस पास के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने में समय बिताने लगे।
हमारा तम्बू अभी भी इस्तेमाल न होने से बंधा का बंधा था – शायद माँ नंदा का स्नेह झरना
हम पर भरपूर बरस रहा था।
अभी तक हमें एक बूँद भी बरखा का पता नहीं मिला था। हम सड़क किनारे कुर्सीयों में बैठे बातचीत
में मग्न थे। तभी एक व्यक्ति एक अंग्रेज को लेकर ऊपर गांव की ओर जाता दिखायी दिया।
हम भी तब गांव देखने के उद्देश्य से उनके पीछे चल पड़े।
थोड़ी दूर गांव में एक वृद्ध सज्जन अपने घर के आँगन मे साईकिल चलाते हुए मिले।
हमें देख उन्होंने साईकिल चलाना छोड़ा और अपने घर के बारे में बताने लगे। घर के अंदर एक
सुरंगनुमा जगह दिखाई। उनके कोई पूर्वज राजा के सेनापति रहे थे और कभी आपात काल में
वो इस सुरंग का उपयोग करते थे।
थोड़ी देर में हम नीचे होटल में आ गए और तब तक दाल भात और सब्ज़ी हमारे इंतजार में थी।
पहाड़ी भोजन का स्वाद अपने आप मे ही निराला है। अक्सर हम पहाड़ी भाई जो शहरो में
रह रहे हैं – इस स्वादु जैविक भोजन को पाने के लिये लालायित रहते हैं।
इसका स्वाद हमेशा हमारे दिल में बसा रहता है।
दिन का भोजन लेकर हम आराम कर रहे थे – तभी एक अध्यापक मिले, जो झाजरा देहरादून के थे और
अपनी पहाड़ की दुर्गम तैनाती का उपयोग राजजात यात्रा में भाग लेकर जीवन को सफल मान रहे थे।
शाम हो चुकी थी और नंदकेशरी से सुबह निकली हुई यात्रा फलदिया गांव पहुंचने वाली थी।
हम सडक से नीचे आये और खेतों की मेंड़ पर खड़े होकर कतार में चलती यात्रा का दर्शन लाभ लिया।
ढोल – दमाऊ की थाप और मश्कबाजे की धुन से वातावरण गुंजायमान था।
आज शाम यात्रा को यहीं फलदिया गांव में विश्राम करना था। डोलियां और चौसिंगया खाडू दर्शन के बाद
हम होटल मे खाना खाकर सो गए ।
29 अगस्त को सुबह – सुबह कार में सामान रखा और बाण गांव की ओर निकल पड़े।
यहाँ हम राज जात यात्रा से आगे हो गये थे – रास्ते में प्रकृति और पहाड़ो की चोटियां मन को
आनंदित कर रही थी l यात्रा में बाण गांव आबादी का आखरी पड़ाव है और सडक भी यहाँ पर ख़त्म होती है l
एक उपयुक्त जगह कार खड़ी कर हम बाण में भोजन हेतु होटल में पहुँच गये। खाना खाकर हम बाण गांव के
भ्रमण पर निकल पड़े।
मैंने सुना था कि बाण में पुराने समय में घरों पर दरवाजे नहीं लगाए जाते थे – ताकि यात्री किसी भी घर
में प्रवेश कर रात्रि विश्राम कर सकें।
अभी भी कुछ घर बिना ताले के हमें दिखाई दिए और कहीं दरवाजे नहीं लगे थे।
अधिकतर घर मिट्टी – पत्थर के बने हुए थे और गोबर और लाल मिट्टी से फर्श को साफ़ किया हुआ था।
बाण गांव घूमकर हम फिर दुकानों की तरफ सड़क में आ गये थे और रात्रि विश्राम के लिये
जगह की सोच रहे थे।
नीचे गांव में शुरू के घरों में भी रुक सकते थे पर वहाँ रुकने का हमने विचार नहीं किया।
सड़क पर प्रशासनिक अमला डटा हुआ था। राज जात को यहाँ पहुंचने में अभी दो दिन शेष थे।
सड़ क किनारे एक सज्जन कोहनी से बैग दबाये बैठे हुए मिले। पता लगा कि रेंजर वर्मा जी हैं
और बिष्ट जी के परिचित हैं।
हम वर्मा जी के पास बैठ गये और उनसे दोस्ताना बातचीत जारी रखी। वार्ता में काफी समय व्यतीत हुआ
और आखिरी वो घड़ी भी आ गई जब रेंजर साहब ने हमसे रात रुकने का ठिकाना पूछ लिया।
हमने उनसे ही पूछ लिया कि आप ही बता दीजिए कहाँ रखें ठिकाना !
संयोग से रेंजर साहब बाण में परिवार के साथ नहीं थे और वन विश्राम गृह का एक हिस्सा उनके
निवास हेतु आबटित था।
ऐसे माँ नंदा की कृपा , हम पर निरंतर बरसी और रेंजर साहब ने अपने निवास में हमें अतिथि बनाया।
कभी- कभी सोचता हूँ – वर्मा जी निहायत सज्जन आदमी हैं। काफी नकदी उनके बैग में रही होगी।
इसकी परवाह न कर इस यात्रा में सबको अपना हर संभव योगदान किया और हमें भी शरण दी।
हम अपने अपने स्लीपिंग बैग लेकर उनके पीछे हो लिये और थोड़ी देर में वन विश्राम गृह पहुँच गये।
उनके एक कमरे में स्लीपिंग बैग रखकर अब उन के एक रात के मेहमान बन चुके थे।
वर्मा जी और हम ऐसे बात कर रहे थे जैसे हम एक दूसरे को वर्षों से जानते हों।
विश्राम गृह में ठहरे डीआईजी संजय गुंजयाल यात्रा की सुरक्षा व्यवस्था संभाल रहे थे और उनका भोजन भी वर्मा जी की रसोई में बन रहा था।
थोड़ी देर बाद हमने वर्मा जी से नीचे सडक पर बने होटल में खाना खाकर आने की बात कही तो
वर्मा जी ने कहा- कहाँ इतनी दूर जाओगे यहीं पर भोजन भी मिल जायेगा।
हमें माँ नंदा का भरपूर आशीर्वाद साथ रहा। जगत जननी नंदा माता ने हमें पालने के लिये
वर्मा जी को निमित्त बनाया।
हम भी ऐसा चमत्कार देख भोंचक्के थे। रसोइया भोजन तैयार कर चुका था – हमें भूख लगी थी और
हम खाने को तैयार थे।
रेंजर साहब ने बताया कि उनका एक मित्र रेंजर अभी आने वाले हैं बात हो ही रही थी तो शाहजी रेंजर भी पहुँच गए।
क्रमश: जारी
– सुभाष चंद्र मझखोला,
(पूर्व प्रबंधक – पंजाब नैशनल बैंक)