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हिमालयी महाकुंभ – माँ नंदा देवी की ससुराल यात्रा !

12 वर्ष बाद आयोजित नन्दा राजजात-यात्रा हिमालय का महाकुंभ — दिनेश शास्त्री सेमवाल।

हिमालयी महाकुंभ – माँ नंदा देवी की ससुराल यात्रा !

12 वर्ष बाद आयोजित नन्दा राजजात-यात्रा हिमालय का महाकुंभ — दिनेश शास्त्री सेमवाल।

बेदनी बुग्याल ! फोटो भूपत सिंह बिष्ट

उत्तराखण्ड में धार्मिक यात्राओं तथा जातों की बहुत पुरानी परम्परा रही है। यहाँ हर ओर धार्मिक यात्राएँ आयोजित की जाती हैं। चमोली जनपद में आमतौर पर 12 वर्ष के अंतराल में होने वाली नन्दादेवी राजजात का इन यात्राओं में विशिष्ट स्थान है। गाँवों, गधेरों, कस्बों, नदियों को लांघते हुए हिमालय के उच्च भाग तक पहुंचने वाली यह यात्रा वास्तव में हिमालय का महाकुंभ है।

नंदा राजजात का निश्चित इतिहास ज्ञात नहीं है, तथापि लोकगीतों एवं लोकपरम्पराओं के अनुसार यह यात्रा आठवीं सदी में शुरू हुई। इस यात्रा के साथ देवी नन्दा से मनौती मांगने का जो धार्मिक विश्वास जुड़ा है, वही इसके विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

उत्तराखण्ड के कोने-कोने में देवी नन्दा के मंदिर स्थित हैं और यहाँ का संपूर्ण समाज देवी नन्दा को अपनी आराध्य भगवती मानता है। पारंपरिक रूप से राजजात की तिथि तय करना, राज छंतोली का शुभारंभ तथा पथ-प्रदर्शक मेढे का चयन नौटी गाँव में होता है।

रूपकुंड !

नौटी वस्तुत: चांदपुर गढ़ के राजाओं के राज गुरुओं का गांव रहा है। चांदपुर गढ़ के वंशज कांसुवा में रहते हैं। वही इस यात्रा के एक तरह से मेजबान होते हैं। नौटी के नन्दा देवी मंदिर में स्थापित श्रीयंत्र की पूजा अर्चना के बाद ही राजजात यात्रा प्रारंभ होती है।

दूसरी तरफ मंदाकिनी घाटी के कुरूड़ के शक्तिपीठ से नन्दा की दो डोलियाँ – दशोली तथा बधाण से निकलती हैं। एक अन्य डोली दशमद्वार से आती है। इसके अतिरिक्त चमोली जनपद के साथ ही कुमाऊं से भी गाँव-गाँव से छतोलिया लेकर लोग राजजात में परम्परागत शामिल होते हैं।

माँ नंदा – फोटो भूपत सिंह बिष्ट

प्राचीन मान्यताओं के अनुसार सातवीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालीपाल ने गढ़वाल की प्राचीन राजधानी चांदपुर गढ़ी से माँ भगवती श्रीनंदा को बारहवें वर्ष में मायके से कैलाश होमकुंड भेजने की परम्परा शुरू की थी। इस यात्रा को नंदादेवी की राजयात्रा कहा जाने लगा। लेकिन बाद में अपभ्रंश होकर यह यात्रा राजजात के रूप में प्रसिद्ध हो गई।

नंदा राजजात परम्परा का निर्वहन गढ़वाल राजा के प्रतिनिधि के रूप में कांसुवा गांव के राज कुंवर, नौटी गाँव के राजगुरु नौटियाल जाति के ब्राह्मणों सहित 12 थोक के ब्राह्मणों एवं चौदह सयानों के सहयोग से होता है।

माँ नंदा देवी को उनकी ससुराल भेजने की यात्रा है — राजजात। माँ नंदा को भगवान शिव की अर्द्धांगिनी माना जाता है और कैलाश (हिमालय) भगवान शिव का निवास।

मान्यता है कि एक बार नंदा अपने मायके आई थीं, लेकिन किन्हीं कारणों से वह 12 वर्ष तक ससुराल नहीं लौट सकीं। बाद में उन्हें आदर-सत्कार के साथ ससुराल भेजा गया। चमोली जिले में पट्टी चांदपुर और श्रीगुरु क्षेत्र को माँ नंदा का मायका और बधाण क्षेत्र (नंदाक क्षेत्र) को उनकी ससुराल माना जाता है।

एशिया की सबसे लम्बी पैदल यात्रा और गढ़वाल-कुमाऊँ की सांस्कृतिक विरासत श्रीनंदा राजजात अपने में कई रहस्य और रोमांच संजोए हुए है। प्रचलित एक जागर गाथा के अनुसार, चांदपुरगढ़ के राजा भानुप्रताप की दूसरी पुत्री का नाम नन्दा था, जिनका विवाह शिव से हुआ और उनकी बड़ी बहन का विवाह धनगरी के कनकपाल से हुआ था।

एक अन्य लोकमत है कि नंदा कन्नौज के राजा रागढ़ की पुत्री थी। जब चांदपुरगढी की इष्टीनंदा का उन्हें दोष लगा तो राज्य में सूखा तथा अन्य प्राकृतिक आपदाओं से त्राहि -त्राहि मच गई। बाद में ज्ञात हुआ कि रानी के पितृ देवी का दोष है और उसकी शांति के लिए ही प्रति बारह वर्ष के अंतराल पर यह आयोजन होता चला आ रहा है।

कई बार विभिन्न कारणों से बारंबरता टूटती रही लेकिन लोक की मान्यताओं को बदस्तूर निभाया जाता रहा है।वैसे प्रति वर्ष एक लोक जात भी होती है लेकिन राज परिवार की ओर से राजजात बारह वर्ष के अंतराल पर ही आयोजित होती है।

रूपकुँड से ज्यूरागली – फोटो भूपत सिंह बिष्ट

इस यात्रा का समापन होम कुंड में पूजा अर्चना के साथ होता है। उससे पूर्व रूपकुंड और ज्यूरागली को पार करना जोखिम भरा दुष्कर है। रूपकुंड में मौजूद नर कंकाल के रहस्य इस यात्रा की ऐतिहासिकता से परिचित कराते हैं। और इस तरह यह हिमालयी महाकुंभ कई मायनों में अद्भुत है।
— दिनेश सेमवाल शास्री।

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One Comment

  1. उत्तराखंड ऐसे न जाने कितने ऐतिहासिक और पौराणिक धरोहर संजोए हुए है!

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